गिरनार याने प्राचीन समय का रैवतक या रेवताचल पर्वत. इसरैवतक पर्वत की कहानी बडी दिलचस्प है. फिलहाल जूनागढ़ मेंजहा गिरनार पर्वत है वहा पहले एक ब्रह्म खाई थी. ब्रह्म खाई कामतलब उसके गहराईका किसी को पता ना होना. स्कंदपुराण केप्रभास खंड में गिरनार की उत्पत्ती कैसे हुयी और उसका महत्वशिवजीने स्वयं पार्वती माता को बताया है.
सत् युग के उत्तर काल की ये कथा हो सकती है.
यहा एक ब्रह्म खाई थी. इस खाईका नीचे का तल याने निचे का अंत किसीको पता नही था. एक दिन देवोंकी कामधेनु गाय इस ब्रह्म खाई में गिर गयी. उसे संभालनेवाले ऋषि दंम्पती को बहुत दुख हुआ. उस दुर्लभकामधेनु गाय को वापस पाने के लिए कई वर्ष उन्होंने भगवान विष्णु की तपस्या की. साधना में खो गए ऋषीपर भगवान प्रसन्न हुए. उन्होने ऋषी दंम्पती को वरदान मांगने को कहा. तब वे बोले- भगवान हमारी कामधेनुमाता इस ब्रह्म खाई मे डुब गयी है हमे वो वापस चाहिए. गाय के प्रति उनका प्यार देखकर भगवान विष्णुजीनेऔर एक वरदान मांगने को कहा तब वे दोनो भगवान के चरणों को प्रणाम करते हुए बोले की - इस खाई काअंत पता नही यहा सभी जीवों को नुकसान पहुंचता है. पंछी भी यहा उपरसे जाते समय चक्कर लगाकर गिरजाते है. इस खाई को भर देना प्रभु. विष्णुजीने उने खाई भरने का वचन दिया. फिर खाई दूध से भरती गयीऔर उसके साथ कामधेनु गौ माता उपर आयी. फिर विष्णुजी मेरू पर्वत के पास गए और उन्होने अपने किसी एक पर्वत पुत्र को वो ब्रह्मखाई भरने का आदेश देने को कहा. लेकिन पुराने समय में पर्वतों को पंख होतेथे वो पंख के सहाय्यतासे किसी भी प्रदेशमें जाते और जहा उतरते वहा के गाव, नगर उसके नीचे दब जाते थे. तब लोगों को और सृष्टी को बचाने के लिए लोमेश ऋषिने गुस्सेमें सभी पर्वतों के पंख काटाना शुरू किया. इसके बाद पर्वत जहां थे वही स्थीर हो गए. इसलिए वह खाई भरना किसी पर्वत को संभव नही था. फिर मेरू ने कहा, भगवान मेरा एक पुत्र रैवतक उस समय समुंदर में छुप गया इसलिए उसके पंख है. आपके लिएमैं उसे आज्ञा देता हूं लेकिन आपको उसकी सहाय्यता करनी होगी. फिर मेरू के आज्ञा पर रैवतक समुंदर से बाहर आया और वह आठ योजन फैली ब्रह्म खाई भरने को तय्यार हुआ. लेकिन उसने विष्णुजी से कुछवरदान मांगे. रैवतक ने कहा की मेरे सर पर दिव्य औषधी वनस्पतीया उत्पन्न हो, चारो धाम हो, ३३ कोटीदेवता, नवनाथ, चौरासी सिद्ध्दीया, ६८ तीर्थ, अनंतकोटी विष्णुजी, निरंजनी महादेव, देवी शक्ती सभी कोमेरे साथ रहेना होगा. विष्णुजीने रैवतक की सारी शर्ते मान ली. उसके बाद सौराष्ट्र के उस ब्रह्म खाई में उडकरआए लेकिन वह खाई इतनी गहेरी थी की रैवतक नीचे नीचे जाने लगा. बडी समस्या उत्पन्न हुयी. उन्होनेविष्णुजी को कहा कुछ करिए वरना मैं भी अंदर चला जाऊंगा. तब विष्णुने उत्तर में इंद्रेश्वर महादेव, दक्षिण मेंरामनाथ महादेव, पूर्व में कामेश्वर महादेव और पश्चिम में भवनाथ महादेव को स्थापन किया. चारो तरफ सेमहादेव को स्थापना करके बांधने से रैवतक याने रेवताचल पर्वत स्थीर हो गया.
ब्रह्मा विष्णु और महेश तीनोनेमिलकर यह कार्य किया और फिर यज्ञ किया. इस यज्ञ में देवीदेवता , ८८ ऋषी, चौरासी सिद्ध, नवनाथ, ३३कोटी देव, सभी का योगदान रहा. यज्ञ के स्थान पर तीन कुंड थे ब्रह्म कुंड, विष्णु कुंड और रूद्र कुंड. यही तिनोकुंड को मिलाकर वहा दामोदर कुंड निर्माण हुआ. इस कुंड मे दामोदर का याने विष्णुजी का निवास है. येअत्यंत पवित्र है और इस तीर्थ की महिमा अपरंपार है.
गिरनार जितना उपर दिखता है उतनाही नीचे है. अनेको पहाडीया पर्वत मिलाकर यह गिरनार क्षेत्र है. प्रभासखंड के अनुसार खुद शिवजीने इस स्थान को अपना प्रियस्थान माना है. और यहा का गौरव किया है. मृगीकुंडका वर्णन भी किया है. १२ योजन का प्रभास तीर्थक्षेत्र है. यहा उत्तम सिद्धी और उत्तम गति प्राप्त होती है.
इसिलिए गिरनारकी यात्रा और परिक्रमाका अतुलनीय महत्व है. गुरुओंके गुरू भगवान दत्तात्रेयजीने यहा १२हजार वर्ष तपस्चर्या की है. यहा अकाल पडा लोग परेशान थे तब माता अनुसयाने दतात्रेय को तपस्यासेबाहर आने को कहा. तभी उनका कमंडलू गिरके दो भाग हुए एक से कमंडलू कुंड हुआ , उसमे सदा पानी होताहै. दुसरे भाग से अग्नी उत्पन्न हुआ वही चेतन धुना है . जो हर सोमवार को स्वयं ही चेतन होती रही है. युगोयुगोंसे यह गिरनार भक्तोंपर कृपा करते आए है.
शिवजी कहते है प्रभास क्षेत्र मुझे कैलास से भी अधिक प्रिय है. हिमालय की ओर मत जाओ, या मलाया यामांदार की ओर मत जाओ . रैवतक पर्वत पर जाओ जहा दामोदर याने विष्णु स्वयं निवास करते है. शिवजी नेस्वयं इस तीर्थ का गौरव किया है. कोई कितना भी सिद्ध महात्मा हो जबतक वह गिरनार में भगवानदत्तात्रेयजी के गुरुशिखरपर हाजिरी नही देते तब तक वे पूर्ण नही होते. सभी को दत्त शिखरपर आनाही होताहै. पूर्णिमा के रात को सभी देव, चौरासी सिद्ध , योगिनी, नवनाथ , ऋषिगण आते है. हम उन्हे नही देख सकतेलेकिन वे सब हमें देखते है. इसलिए पौर्णिमा के दिन वहा भक्तोंकी भीड होती है.
शिखर पर बैठकर दत्तात्रेयजी सभी की खबर रखते है. भूके को अन्न और प्याले को जल देना जरूरी है. इससेदत्तात्रेयजीकी कृपा बरसती है. दत्तशिखर तक पहुंचने की यात्रा अत्यंत कठिन है. पहली सिढ़ी पर पूर्णतःआत्मसमर्पण होगा तभी आप दस हजार सिढ़ीया चढ पाते हो. अहंकारी का अहंकार कुछ क्षणोंमें चुरचुर होताहै. मां अंबामाता तक कठीण परीक्षा देनी होती है. उसके बाद गोरक्ष शिखर और फिर दत्तशिखर तक हमपहुंचते है. अंबामाता सच्चे साधक, पवित्र मन होगा उन्हे ही आगे भेजती है. कई लोगों का आज भी यहीअनुभव है. हर समय अलग अलग परीक्षा होती है. उसके बाद आप परम पवित्र दिव्य दत्त चरण पादुकाओं केदर्शन करते हो. एक क्षण दत्त चरण पादुका के दर्शन से आपने आप को हम खो देते हो. क्षण मात्र हमनिर्विकार होते है. मन शांत शांत होता है. यह अवस्था वहा के साधुमहाराज के शब्द - चलो आगे चलो, यहभंग करते है. हम वास्तव में आते है और परिक्रमा करते हुए बाहर आते है.
पहले वहा शिखरपर सिर्फ दत्त महाराजजी की चरण पादुकाएं थी. लेकिन भक्तों की संख्या बढने के बाद वहाके प्रचंड हवा से भक्तों का संरक्षण करने के हेतु से वहा मंदिर का निर्माण किया. भक्तों को कुछ क्षण वहाखडे होना संभव हुआ है.
गिरनार का महत्त्व युगोयुगों से है. दत्त भगवान का अक्षय निवास स्थान है गिरनार. वहा वे खुद बुलाते है तभीजाना होता है. गिरनारमें दत्तात्रेयजी की अनुभूती हर एक सिढ़ी चढते समय होती है. किसी ना किसी रूप मेंआकर वह मार्गदर्शन भी करते है. बस अपना मन पवित्र और आत्मा समर्पित होना चाहिए.
जय गिरनारी
🙏 अवधूत चिंतन श्री गुरूदेव दत्त🙏



Beautiful ❤️...this reading transmitted me through the whole journey of Girnar. Had known this story in short ...Thanks Sumedha for your writing skills you have so deeply narrated it... Jai Girnari 🙏
ReplyDeleteThank you 🙏
DeleteSo deep
ReplyDeleteThank you 🙏
Deleteखूप छान 😇
ReplyDeleteThank you
DeleteThanks for post
ReplyDelete🙏😊
Delete